आजकल के कुछ फर्जी इतिहासकारो द्वारा ऐसी भ्रामक जानकारी प्रचारित करके लाटेचा राजपुत सरदारो के स्वाभिमानी इतिहास को धूमिल किया जा रहा है
विशेष निवेदन
आजकल के कुछ फर्जी इतिहासकारो द्वारा ऐसी भ्रामक जानकारी प्रचारित करके लाटेचा राजपुत सरदारो के स्वाभिमानी इतिहास को धूमिल किया जा रहा है
कुछ लोग सुनी सुनाई बातों के आधार पर क्षत्रिय घाँची जाति का संस्थापक कुमारपाल को बताते हैं लेकिन यह बात आधारहीन हैं इसके कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं,
पहली बात तो यह कि क्षत्रिय घाँची पहले भी क्षत्रिय ही थे क्योंकि क्षत्रियत्व तो उत्तपत्ति से ही रक्त के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी आगे चलता जाता हैं, उन्होंने केवल राजपूती रितिवाज और खानपान को त्याग कर क्षत्रिय राजपूत से क्षत्रिय घाँची होना अंगीकार किया था,
दूसरी बात यह कि संवत 1191 में ही तेल निकालने वाले सरदार ढाल तलवार त्याग कर घाणी अपना कर घाँची बन कर पाटण को छोड़ चुके थे, कुमारपाल उस समय से वर्षों पहले पाटण से भाग कर सिद्धराज जयसिंग सोलंकी से जान बचा कर कभी खंभात, कभी बड़ोदा, कोल्हापुर, कोंकण के जैन देरासरो में जैन साधुओं के बीच छिपकर रह रहा था, जब संवत 1199 में सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु हुई तब कुमारपाल मालवा के जैन देरासर में छिपा हुआ था, जयसिंह की मृत्यु के पश्चात ही वो पुनः पाटण आया था, उस समय उसने जैन मुनि हेमचन्द्र की मदद और अपने बहनोई कान्हादेव की सेना की मदद से जयसिंह के घोषित उत्तराधिकारी को मारकर पाटण का राज्य प्राप्त किया था, जब तेल निकालने वाले सरदार संवत 1191में ही पाटण त्याग चुके थे तो 1199 में राजा बनने वाला कुमारपाल उनका संस्थापक कैसे हो सकता हैं?
कुछ लोग यह बात करते हैं कि कुमारपाल भी घाँची सरदार जो तेल निकालने को राजी हुए थे उनके साथ वो भी तेल निकालता था, तो यह बात असत्य हैं तेल निकालने के काम में राजकुमार कीर्तिपाल लगा हुआ था ना कि कुमारपाल ( संदर्भ पुस्तक श्री क्षत्रिय घाँची इतिहास पेज 19)
कुमारपाल, कीर्तिपाल और महीपाल ये तीनों राजा सिद्धराज जयसिंह सोलंकी के पिता राजा कर्ण के सौतेले भाई त्रिभुवनपाल के पुत्र थे, जयसिंह के कोई पुत्र नहीं था फिर भी वो अपने इन सौतेले भाइयों को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाना चाहता था क्योंकि उसका सोचना था कि इन तीनों की दादी भीमदेव प्रथम की दूसरी पत्नी बकुलादेवी क्षत्राणी न होकर एक नर्तकी वेश्या थी और सिद्धराज जयसिंग सोलंकी नहीं चाहते थे कि उनके उस समय के विशाल वैभवशाली साम्राज्य का उत्तराधिकारी किसी नृतकी का रक्त वाहक बने, लेकिन जब उस समय उनके दरबारी जैन मुनि हेमचन्द्र ने राजा को यह भविष्यवाणी सुना दी कि एक दिन कुमारपाल पाटण का राजा बनेगा तो जयसिंह किसी भी तरीके से अपने राज्य को एक नृतकी के पौत्र के हाथों जाने से बचाने के लिए कुमारपाल को जान से मारने की जुगत में लग गए, उसकी भनक मिलते ही कुमारपाल पाटण से गायब होकर जैन देरासरो में चला गया था,
कुछ सुनी सुनाई बाते हैं कि कुमारपाल घाँची बने सरदारो के साथ मारवाड़ राज्य के पाली में आया था और फिर यहाँ से राजा बनने पाटण चला गया था, यह बात भी तथ्यों से परे हैं, जिसका सन्दर्भ यह दोहा हैं जिसमें उस समय पाटण त्याग गादोतरा गाड़कर आने वाले 8 गोत्र के 173 क्षत्रीय सरदारों के कुटुंब प्रमुख के नाम मिलते हैं
दोहा (संदर्भ पुस्तक श्री क्षत्रिय घाँची इतिहास पेज 67)
प्रथम राघो परमार गेलोत जाँझो गणिजे।
बोराणों लखराज भाटी वेलो भणिजे।।
चाँवण सतलसी सोलंकी खीमो सवाई।
राठोड़ो वीर धवल पुत्री चुमालिस परणाई ।।
पडिहार राण पदमसिंह वडम आण वधारिया ।
कवित आण भाट डूंगर कहे सुरफल जलम सुधारिया ।।
इस दोहे में कहीं भी सोलंकी कुमारपाल का जिक्र नही हैं जबकि सोलंकी में खीमो जी नाम हैं दूसरी बात यह मान भी लें की साथ आकर वो वापिस पाटण चला गया तो फिर गादोतरा का प्रण तोड़ कर वापिस जाने वाला संस्थापक कैसे हो सकता हैं
इस वर्णन में जिन पुस्तकों से जानकारी ली गई हैं
वो इस तरह से है
श्री क्षत्रिय घाँची संक्षिप्त इतिहास
मुहथा नैंसी री ख्यात
सिद्धराज सोलंकी चरित्र
कुमारपाल
1 Comments:
आप क्षत्रिय घांची समाज का इतिहास की पुस्तक का PDF उपलब्ध करा सकते हो
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