KSHATRIYA GHANCHI SAMAJ
Friday, January 31, 2020
क्षत्रिय लाठेचा सरदारो(क्षत्रिय घाँची समाज) आँखे खोलो
क्षत्रिय लाठेचा सिरदारो को जय भवानी hkm🙏
पहले सभी जाकर सही इतिहास पढ़ो फिर अपने क्षत्रिय लाठेचा समाज के साथ किसी दूसरी जाति की तुलना करना
किस आधार पर तेली तंबोलियो को तुम क्षत्रिय लाठेचा समाज वाले भाई बता रहे हो अरे इन्हीं धोखेबाज तेलियों की वजह से तुम्हारे पूर्वज स्वाभिमानी 189 सिरदार13 गोत्रो के क्षत्रिय राजपुत सिरदारो को अपनी रजपूती पहचान अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ी
आज से 850 से अधिक वर्षो पूर्व तुम्हारे पूर्वजो क्षत्रिय राजपुत सिरदारो ने राजा जयसिंह को वचन दिया था ओर शाख भरी थी इन तेलियों ( साहू मोढ़/मोदी गनिगा राठौड़ , चंपनेरी ,खंभाति , अहमदाबादी ) की शाख(गारण्टी) भरी की यह सब तेली वापस आ जायेंगे अपनी बेटियों का विवाह सम्पन करवाकर , परन्तु जब महीना बीत जाने के बाद में कोई भी तेली वापस नही आया अहिलवाड़ा पाटण में तब राजा जयसिंह ने वचन देकर शाख भरने वाले उन 189 राजपुत सिरदारो के मुख्या कुमरपाल सिंह व ठाकुर वेलसिंह भाटी को बुलाकर कहा कि आप लोगो ने उन उन तेलियों के वापस आने का वचन दिया है और क्षत्रियो के वचन के लिए इतिहास गवाह है कि रघुकुल रीति सदा चली आयी , प्राण जाए पर वचन नही इसलिए आप सभी राजपुत अपने वचन का पालन करे तब उन 189 राजपूतो(क्षत्रिय घाँची) ने अपने मुख्या कुमरपालसिंह व वेलसिंह के नेतृत्व में अपनी दास दासियों द्वारा काम पूरा करवाकर वचन का पालन किया और सोमनाथ मंदिर के निर्माण पचात जब दूसरे राजपूतो ने उन 13 गोत्री राजपूतो को तुकारो देने पर राजा जयसिंह द्वारा कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही करने पर कुमारपाल सिंह व वेलसिंह भाटी ने कहा कि भरे राजदरबार में राजपूतो द्वारा ही राजपूतो को तुकारो देने के बावजूद महाराज कुछ नही बोले तो हमे ऐसे राज्य और ऐसी रियासत में ही नही रहना जहाँ क्षत्रिय धर्म के विमुख हो जाये और गधे के आकार की मूर्ति को अहिलवाड़ा पाटण में जमीन में गाड़ कर यह कह कर निकल गए कि हम ऐसे जगह पर जाएंगे जहाँ क्षत्रिय राजपूतो का सम्मान हो और क्षत्रिय धर्म और क्षत्रिय कर्म करेंगे
इसलिए सभी क्षत्रिय लाठेचा सिरदारो से निवेदन है कि आप अपने पूर्वजो को धोखा देने वाले तेलियों (साहू मोदी गनिगा राठौर गनिगा गंदला ) को अपने साथ जोड़कर उनको अपना भाई मान रहे हो हमारे समाज के संस्थापक उन 13 गोत्री राजपुत सिरदारो को स्वर्ग में बैठे बैठे बहुत दुख हो रहा होगा कल्पना करो , कि हमने जिस तेली जाति के कारण अपना स्वाभिमान अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ी थी , और आज हमारी ही औलाद उनके साथ साठगाँठ ,समझौता कर रही है उनको स्वर्ग से बैठे बैठे तुम पर घिन आ रही होगी की कैसी नकारा संताने उनके ही वंश में पैदा हो गयी आज
इसलिए जब भी अपना जमीर मर जाये अपने स्वाभिमानी क्षत्रिय राजपुत पूर्वजो को याद कर लेना जिन्होंने अपने वचन के कारण अपनी मातृभूमि छोड़कर आ गये थे पर अपने क्षत्रिय राजपुत धर्म को नही भूले थे
पहले सभी जाकर सही इतिहास पढ़ो फिर अपने क्षत्रिय लाठेचा समाज के साथ किसी दूसरी जाति की तुलना करना
किस आधार पर तेली तंबोलियो को तुम क्षत्रिय लाठेचा समाज वाले भाई बता रहे हो अरे इन्हीं धोखेबाज तेलियों की वजह से तुम्हारे पूर्वज स्वाभिमानी 189 सिरदार13 गोत्रो के क्षत्रिय राजपुत सिरदारो को अपनी रजपूती पहचान अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ी
आज से 850 से अधिक वर्षो पूर्व तुम्हारे पूर्वजो क्षत्रिय राजपुत सिरदारो ने राजा जयसिंह को वचन दिया था ओर शाख भरी थी इन तेलियों ( साहू मोढ़/मोदी गनिगा राठौड़ , चंपनेरी ,खंभाति , अहमदाबादी ) की शाख(गारण्टी) भरी की यह सब तेली वापस आ जायेंगे अपनी बेटियों का विवाह सम्पन करवाकर , परन्तु जब महीना बीत जाने के बाद में कोई भी तेली वापस नही आया अहिलवाड़ा पाटण में तब राजा जयसिंह ने वचन देकर शाख भरने वाले उन 189 राजपुत सिरदारो के मुख्या कुमरपाल सिंह व ठाकुर वेलसिंह भाटी को बुलाकर कहा कि आप लोगो ने उन उन तेलियों के वापस आने का वचन दिया है और क्षत्रियो के वचन के लिए इतिहास गवाह है कि रघुकुल रीति सदा चली आयी , प्राण जाए पर वचन नही इसलिए आप सभी राजपुत अपने वचन का पालन करे तब उन 189 राजपूतो(क्षत्रिय घाँची) ने अपने मुख्या कुमरपालसिंह व वेलसिंह के नेतृत्व में अपनी दास दासियों द्वारा काम पूरा करवाकर वचन का पालन किया और सोमनाथ मंदिर के निर्माण पचात जब दूसरे राजपूतो ने उन 13 गोत्री राजपूतो को तुकारो देने पर राजा जयसिंह द्वारा कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही करने पर कुमारपाल सिंह व वेलसिंह भाटी ने कहा कि भरे राजदरबार में राजपूतो द्वारा ही राजपूतो को तुकारो देने के बावजूद महाराज कुछ नही बोले तो हमे ऐसे राज्य और ऐसी रियासत में ही नही रहना जहाँ क्षत्रिय धर्म के विमुख हो जाये और गधे के आकार की मूर्ति को अहिलवाड़ा पाटण में जमीन में गाड़ कर यह कह कर निकल गए कि हम ऐसे जगह पर जाएंगे जहाँ क्षत्रिय राजपूतो का सम्मान हो और क्षत्रिय धर्म और क्षत्रिय कर्म करेंगे
इसलिए सभी क्षत्रिय लाठेचा सिरदारो से निवेदन है कि आप अपने पूर्वजो को धोखा देने वाले तेलियों (साहू मोदी गनिगा राठौर गनिगा गंदला ) को अपने साथ जोड़कर उनको अपना भाई मान रहे हो हमारे समाज के संस्थापक उन 13 गोत्री राजपुत सिरदारो को स्वर्ग में बैठे बैठे बहुत दुख हो रहा होगा कल्पना करो , कि हमने जिस तेली जाति के कारण अपना स्वाभिमान अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ी थी , और आज हमारी ही औलाद उनके साथ साठगाँठ ,समझौता कर रही है उनको स्वर्ग से बैठे बैठे तुम पर घिन आ रही होगी की कैसी नकारा संताने उनके ही वंश में पैदा हो गयी आज
इसलिए जब भी अपना जमीर मर जाये अपने स्वाभिमानी क्षत्रिय राजपुत पूर्वजो को याद कर लेना जिन्होंने अपने वचन के कारण अपनी मातृभूमि छोड़कर आ गये थे पर अपने क्षत्रिय राजपुत धर्म को नही भूले थे
भाटी वंश चंद्रवंशीयो(यदुवंशी) का इतिहास
चंद्रवंशी क्षत्रिय भाटी सरदारो का इतिहास कि कैसे चंद्रवंशी से यदुवंशी ओर बाद में भाटी नाम चला
भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन विस्तार से
वंश परिचय :-
चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है | कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे | सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये | ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है |
श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध ' का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |
कुल परम्परा :-
यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |
३.कुलदेवता :-
लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |
४. कुलदेवी :-
स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |
५. इष्टदेव
श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |
६.वेद :-
यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है - ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद | इनमे प्रत्येक में चार भाग है - संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ' में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |............. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है
७.गोत्र :-
अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र '' अत्री '' कहलाया |
८.छत्र :-
मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |
9.ध्वज :-
भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |
१०.ढोल :-
भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |
११. नक्कारा :-
अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ' नगारबंद' ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है |''
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा
१२.गुरु:-
रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना |''
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |
13.पुरोहित :-
पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |
14 पोळपात
रतनू चारण - भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |
15. नदी
यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |
16.वृक्ष
पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है
17.राग
मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |
18.माला
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |
19.विरुद
उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की '; विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है
२.अभिवादन
जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |
21. राजचिन्ह :- राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |
22.भट्टीक सम्वत :- भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है | वैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया | भाटी राजवंश द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है | उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है |
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे | इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है | परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है | यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते |
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा |
खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा | इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं, संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया | कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया | बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा |
एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है | यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है |
भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-600 अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है | मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है
भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी ।
भाटी शासक का शासन काल 5000
आजतक भारत के राजवंशो में किसी भी राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा हुआ है । केवल यदुवंश भाटी ही ऐसा वंश है जो 5000 साल लगातार भारत भूमि पर कही न कही शासन करते चले आ रहे है । इतने लम्बे समय में उनकी राजधानिया एंड काल इस प्रकार रहे ।
राजधानी का नाम काल
काशी 900 साल
द्वारिका 500 साल
मथुरा 1050 साल
गजनी 1500 साल
लाहोर 600 साल
हंसार 160 साल
भटनेर 80 साल
मारोट 140 साल
तनोट 40 साल
देरावर 20 साल
लुद्र्वा 180 साल
जैसलमेर 791 साल
इतिहास में 5000 साल के लम्बे समय में 49 युद्ध भारत भूमि की रक्षा के लिए शत्रुओं से लड़े गए उनका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । जिसमे 10 युद्ध गजनी पर हुए इस इतिहास में आदिनारायण से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह तक ।
208 पीढियों का वर्णन है । यूनान के बादशाह सिकंदर एंड जैसलमेर के महारावल शालिवाहन 167 के बीच युद्ध हुआ जिसमे महारावल विजयी हुए । भटनेर के तीन शाके तनोट पर एक शाका जिसमे 350 क्षत्रानियो ने जोहर किया रोह्ड़ी का शाका , जैसलमेर के ढाई शाके इस प्रकार कुल साढ़े ग्यारह शाके यदुवंशी भाटियो द्वारा किये गए प्रस्तुत इतिहास में 36 वंशों के नाम यदुवंशियों की 11 साखायें भाटियो की 150 साखायें एंड उनकी जागीरे भाटियो द्वारा कला साहित्य संगीत चित्रकला स्थापत्य कला जैसलमेर की स्थापना जैसलमेर का राज्य चिन्ह भाटी मुद्रा टोल जैसलमेर के दर्शनीय स्थान सामान्य ज्ञान पटुओ का इतिहास राठौर एंड परमारों की ख्याति का भी वर्णन है ।
उत्तर भड़ किवाड़ भाटी
भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन विस्तार से
वंश परिचय :-
चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है | कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे | सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये | ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है |
श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध ' का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |
कुल परम्परा :-
यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |
३.कुलदेवता :-
लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |
४. कुलदेवी :-
स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |
५. इष्टदेव
श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |
६.वेद :-
यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है - ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद | इनमे प्रत्येक में चार भाग है - संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ' में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |............. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है
७.गोत्र :-
अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र '' अत्री '' कहलाया |
८.छत्र :-
मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |
9.ध्वज :-
भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |
१०.ढोल :-
भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |
११. नक्कारा :-
अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ' नगारबंद' ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है |''
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा
१२.गुरु:-
रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना |''
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |
13.पुरोहित :-
पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |
14 पोळपात
रतनू चारण - भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |
15. नदी
यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |
16.वृक्ष
पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है
17.राग
मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |
18.माला
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |
19.विरुद
उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की '; विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है
२.अभिवादन
जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |
21. राजचिन्ह :- राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |
22.भट्टीक सम्वत :- भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है | वैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया | भाटी राजवंश द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है | उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है |
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे | इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है | परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है | यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते |
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा |
खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा | इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं, संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया | कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया | बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा |
एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है | यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है |
भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-600 अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है | मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है
भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी ।
भाटी शासक का शासन काल 5000
आजतक भारत के राजवंशो में किसी भी राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा हुआ है । केवल यदुवंश भाटी ही ऐसा वंश है जो 5000 साल लगातार भारत भूमि पर कही न कही शासन करते चले आ रहे है । इतने लम्बे समय में उनकी राजधानिया एंड काल इस प्रकार रहे ।
राजधानी का नाम काल
काशी 900 साल
द्वारिका 500 साल
मथुरा 1050 साल
गजनी 1500 साल
लाहोर 600 साल
हंसार 160 साल
भटनेर 80 साल
मारोट 140 साल
तनोट 40 साल
देरावर 20 साल
लुद्र्वा 180 साल
जैसलमेर 791 साल
इतिहास में 5000 साल के लम्बे समय में 49 युद्ध भारत भूमि की रक्षा के लिए शत्रुओं से लड़े गए उनका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । जिसमे 10 युद्ध गजनी पर हुए इस इतिहास में आदिनारायण से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह तक ।
208 पीढियों का वर्णन है । यूनान के बादशाह सिकंदर एंड जैसलमेर के महारावल शालिवाहन 167 के बीच युद्ध हुआ जिसमे महारावल विजयी हुए । भटनेर के तीन शाके तनोट पर एक शाका जिसमे 350 क्षत्रानियो ने जोहर किया रोह्ड़ी का शाका , जैसलमेर के ढाई शाके इस प्रकार कुल साढ़े ग्यारह शाके यदुवंशी भाटियो द्वारा किये गए प्रस्तुत इतिहास में 36 वंशों के नाम यदुवंशियों की 11 साखायें भाटियो की 150 साखायें एंड उनकी जागीरे भाटियो द्वारा कला साहित्य संगीत चित्रकला स्थापत्य कला जैसलमेर की स्थापना जैसलमेर का राज्य चिन्ह भाटी मुद्रा टोल जैसलमेर के दर्शनीय स्थान सामान्य ज्ञान पटुओ का इतिहास राठौर एंड परमारों की ख्याति का भी वर्णन है ।
उत्तर भड़ किवाड़ भाटी
क्षत्रिय लाठेचा सिरदारो(क्षत्रिय घाँची) समाज को संदेश
लाठेचा सिरदारो को एक जाग्रति संदेश
उठो क्षत्रियो
किसी समाज की गरिमा उसकी भौतिक उपलब्धियों से नहीं आंकी जाती। वास्तविक सम्पदा तो वहाँ के चरित्रवान एवं आदर्शवादी युवा ही होते हैं। ये ही वास्तव में बहुमूल्य मणि-माणिक्य हैं। सच्ची समृद्धि इसी रत्न राशि की बाहुल्यता पर निर्भर है। सम्पन्नता धन पर आधारित नहीं है, शक्ति का माप आयुधों से नहीं किया जाता, बड़प्पन क्षेत्रविस्तार या जनसंख्या पर टिका हुआ नहीं है। किसी समाज का गौरव उसके लौह युवा ही होते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी का कहना है ''आज हमारे समाज और देश को जिस चीज की आवश्यकता है, वह ऐसे युवाओं की लोहे की मांसपेशियां, फौलाद के स्नायु तथा प्रचण्ड इच्छा शक्ति है जिसका विरोध कोई न कर सके। समाज चाहता है एक नई विद्युत शक्ति, जो समाज की नस-नस में नया जीवन संचार कर दे। काम और कांचन में जकड़े मोहान्ध युवा उपेक्षा की दृष्टि से देखे जाने योग्य हैं।
खोजें जीवन लक्ष्य ! क्योंकि इसके बिना युवा-अवस्था सही राह न खोज पायेगी। यौवन की शक्तियां यों ही बिखरती, बरबाद होती रहेंगी। ओछे आकर्षण और उनींदे सपनों की कोई उम्र नहीं होती। युवाओं के मन के खजाने में इन्द्रधनुषी सपनों की कमी नहीं है। स्वप्नों को साकार करना ही युवा का एकमेव लक्ष्य हो। लक्ष्य सिद्धि ही जीवन की सार्थकता है। स्वयं के जीवन को धन्य बनाने के साथ समाज की भी प्राथमिकताएं हैं। समाज के प्रति आस्था, अनुराग होना ही चाहिए। आज पुर्विया क्षत्रिय समाज झूठे अहंकार में जीती है। युवा का समाज के प्रति अनुराग हो, समाज युवा के वक्ष पर धड़कता हो, समाज युवा की नसों में स्पन्दन करता हो, समाज युवा का दिवा स्वप्न हो, समाज उनका निशा कल्प हो। युवा समाज के रक्त-मज्जा से निर्मित शरीर रूप है। वे स्वयं समाज हैं।
आज पुर्विया समाज के युवा को ध्यान होना चाहिए कि हम ऐसे महापुरूषों से सम्बन्ध रखते हैं जिनकी गाथा स्वर्ण अक्षरों से मानव इतिहास में अंकित है। समाज का युवा उस गाथा से अनभिज्ञ है। जब क्षत्रिय युवा यहीं सर्वप्रथम यौवन के मध्यान्ह में, वैभव विलास की गोद में, ऐश्वर्य के शिखर पर और शक्ति के प्राचुर्य में, माया मोह की श्रृंखला तोड़कर मानव कल्याण के लिए जीवन की शेष सांसें समर्पित कर देते थे। आज हमारी समाज का संवेदनशील और शिक्षित युवा समाज की कुरीति और कुसंस्कारों से संक्रमित समाज में घुटन महसूस करता है। जब वह युवा पढ़कर बाहर जाता है तो वह अपने आपको बौना महसूस करता है। उसके पास समाज का कोई प्रभावशाली परिचय नहीं है। वह अपनी पहचान ठीक से नहीं बना सकता। अत: युवा अपनी समाज की वि’शेषता, इतिहास और अपने महापुरूषों को नहीं बता सकता। आज का युवा ग्लोबलाईजे’शन और डिजिटल वर्ल्ड का मतलब समझे और नए लोगों में भी अपनी जगह बनाये।
गत एक सहस़्त्र वर्ष तक हम जिस प्रकार परकीय आक्रान्ताओं के शिकार बनते रहे उसका कारण धनाभाव , बलहीनता या सैन्य बल का अभाव नहीं था, वरन् उसका एकमात्र कारण आपसी मतभेद तथा चैतन्य युक्त समाज भावना का अभाव था। पद, प्रतिष्ठा, पैसा और परिवार का भान सामाजिक एकता में बाधक बना और बनता जा रहा है। आज युवा को समझना होगा कि मानवता के महासमर में सुख और दुख, शक्ति और दुर्बलता, वैभव और दैन्य, हर्ष और विषाद, अस्मिता और आंसू तथा जीवन और मृत्यु के प्रबल तरंगाघातों के बीच विचलित युवा को कुरूक्षेत्र के मैदान में कृष्ण का संदेश प्रेरणा बना। वही प्रेरणारूपी गीता के गीतों को पुर्विया समाज के युवाओं को हृदयंगम करना है।
अब समाज के युवा को संकल्पित होकर अपने संस्कारों की सुगन्ध से समाज को महकाना है। आज युवा को ऐसे व्यवहार की आव’यकता है -
''जीत ले जग का हृदय जो, आपका वह शील अनुपम।
वज्र को नवनीत कर दे , स्नेह-मय वाणी सुधा सम।।''
उठो क्षत्रियो
किसी समाज की गरिमा उसकी भौतिक उपलब्धियों से नहीं आंकी जाती। वास्तविक सम्पदा तो वहाँ के चरित्रवान एवं आदर्शवादी युवा ही होते हैं। ये ही वास्तव में बहुमूल्य मणि-माणिक्य हैं। सच्ची समृद्धि इसी रत्न राशि की बाहुल्यता पर निर्भर है। सम्पन्नता धन पर आधारित नहीं है, शक्ति का माप आयुधों से नहीं किया जाता, बड़प्पन क्षेत्रविस्तार या जनसंख्या पर टिका हुआ नहीं है। किसी समाज का गौरव उसके लौह युवा ही होते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी का कहना है ''आज हमारे समाज और देश को जिस चीज की आवश्यकता है, वह ऐसे युवाओं की लोहे की मांसपेशियां, फौलाद के स्नायु तथा प्रचण्ड इच्छा शक्ति है जिसका विरोध कोई न कर सके। समाज चाहता है एक नई विद्युत शक्ति, जो समाज की नस-नस में नया जीवन संचार कर दे। काम और कांचन में जकड़े मोहान्ध युवा उपेक्षा की दृष्टि से देखे जाने योग्य हैं।
खोजें जीवन लक्ष्य ! क्योंकि इसके बिना युवा-अवस्था सही राह न खोज पायेगी। यौवन की शक्तियां यों ही बिखरती, बरबाद होती रहेंगी। ओछे आकर्षण और उनींदे सपनों की कोई उम्र नहीं होती। युवाओं के मन के खजाने में इन्द्रधनुषी सपनों की कमी नहीं है। स्वप्नों को साकार करना ही युवा का एकमेव लक्ष्य हो। लक्ष्य सिद्धि ही जीवन की सार्थकता है। स्वयं के जीवन को धन्य बनाने के साथ समाज की भी प्राथमिकताएं हैं। समाज के प्रति आस्था, अनुराग होना ही चाहिए। आज पुर्विया क्षत्रिय समाज झूठे अहंकार में जीती है। युवा का समाज के प्रति अनुराग हो, समाज युवा के वक्ष पर धड़कता हो, समाज युवा की नसों में स्पन्दन करता हो, समाज युवा का दिवा स्वप्न हो, समाज उनका निशा कल्प हो। युवा समाज के रक्त-मज्जा से निर्मित शरीर रूप है। वे स्वयं समाज हैं।
आज पुर्विया समाज के युवा को ध्यान होना चाहिए कि हम ऐसे महापुरूषों से सम्बन्ध रखते हैं जिनकी गाथा स्वर्ण अक्षरों से मानव इतिहास में अंकित है। समाज का युवा उस गाथा से अनभिज्ञ है। जब क्षत्रिय युवा यहीं सर्वप्रथम यौवन के मध्यान्ह में, वैभव विलास की गोद में, ऐश्वर्य के शिखर पर और शक्ति के प्राचुर्य में, माया मोह की श्रृंखला तोड़कर मानव कल्याण के लिए जीवन की शेष सांसें समर्पित कर देते थे। आज हमारी समाज का संवेदनशील और शिक्षित युवा समाज की कुरीति और कुसंस्कारों से संक्रमित समाज में घुटन महसूस करता है। जब वह युवा पढ़कर बाहर जाता है तो वह अपने आपको बौना महसूस करता है। उसके पास समाज का कोई प्रभावशाली परिचय नहीं है। वह अपनी पहचान ठीक से नहीं बना सकता। अत: युवा अपनी समाज की वि’शेषता, इतिहास और अपने महापुरूषों को नहीं बता सकता। आज का युवा ग्लोबलाईजे’शन और डिजिटल वर्ल्ड का मतलब समझे और नए लोगों में भी अपनी जगह बनाये।
गत एक सहस़्त्र वर्ष तक हम जिस प्रकार परकीय आक्रान्ताओं के शिकार बनते रहे उसका कारण धनाभाव , बलहीनता या सैन्य बल का अभाव नहीं था, वरन् उसका एकमात्र कारण आपसी मतभेद तथा चैतन्य युक्त समाज भावना का अभाव था। पद, प्रतिष्ठा, पैसा और परिवार का भान सामाजिक एकता में बाधक बना और बनता जा रहा है। आज युवा को समझना होगा कि मानवता के महासमर में सुख और दुख, शक्ति और दुर्बलता, वैभव और दैन्य, हर्ष और विषाद, अस्मिता और आंसू तथा जीवन और मृत्यु के प्रबल तरंगाघातों के बीच विचलित युवा को कुरूक्षेत्र के मैदान में कृष्ण का संदेश प्रेरणा बना। वही प्रेरणारूपी गीता के गीतों को पुर्विया समाज के युवाओं को हृदयंगम करना है।
अब समाज के युवा को संकल्पित होकर अपने संस्कारों की सुगन्ध से समाज को महकाना है। आज युवा को ऐसे व्यवहार की आव’यकता है -
''जीत ले जग का हृदय जो, आपका वह शील अनुपम।
वज्र को नवनीत कर दे , स्नेह-मय वाणी सुधा सम।।''