क्षत्रिय लाटेचा सरदारो ( क्षत्रिय घाँची समाज ) का इतिहास
क्षत्रिय लाटेचा राजपूत सरदारो का ( क्षत्रिय घाँची ) समाज का इतिहास
क्षत्रिय वर्ण की घाँची जाति है जो मूल राजपुत वंशी है थे यह मूल घाँची नही रहे बस घाँची शब्द बाद में अपना लिया क्षत्रिय राजपुत पहचान के साथ , क्षत्रिय घाँची यह राजस्थान में मारवाड़ में जो लाटेचा राजपूत या लाटेचा क्षत्रिय कहलाते थे ये पाटण के ओर लाट प्रदेश के राजपूत थे जो 1191 में रूद्रमन्दिर बनने के दौरान राजपूतों ने राजा के दौरान राजपूतों से राजपुत घाँची बने थे
रूद्रमन्दिर महाराजा जयसिंह के पूर्वज मूलराज के द्वारा शिव मंदिर जो अधूरा रह गया था उसको जयसिंह ने पूरा करवाने का निर्णय किया तब सिलावटो को बुलाकर मंदिर निर्माण पूरा होने का समय पूछा तो सिलावट 24 वर्ष का बोले तब राजा ने ज्योतिषो को बुलाकर अपनी जीवन की पूछा तो ज्योतिष ने 12 वर्ष शेष बताई तब राजा ने सिलावटो को दिन और रात निर्माण कार्य जारी रख कर 12 वर्ष में पूर्ण करने का आदेश दिया ताकि जयसिंह अपने जीवनकाल में ही यह अपने पुर्वज मूलराज का रुद्रमाहालय मंदिर पूर्ण करवा सके , रात में निर्माण कार्य के लिए रोशनी की जरूरत पड़ती जिसके लिए तेल की आवश्यकता थी तो आस पास के तेलियो को बुलाया गया जो दिन रात घाणी चला तेल की व्यवस्था करते थे इन सिलावट व तेलियो के ऊपर निगरानी के लिए महाराजा सिद्धराज जयसिंह ने 189 राजपूतों को लगाया जिनके अग्रणी वेलसिह पुत्र बजेसिंह जी थे वेलसिंह जी लोद्रवा के रावल विजयराज लांझा के साथ पाटण गए थे और वही रह गए थे मंदिर निर्माण शुरू हुआ 8 वर्ष बीतने के बाद अचानक तेलियो के पास इकट्ठा हुए धन लूट जाने की चिंता सताने लगी उन्होंने वेलसिंह जी से छुट्टियों की माँग की कि उनके बेटिया बड़ी हो गयी इसलिए वो उनकी शादिया करवाकर लौट आएंगे उनकी इस मांग को वेलसिंह जी ने जयसिंह के पास पहुँचवाई लेकिन महाराजा जयसिंह जी ने मना कर दिया कि अब मंदिर निर्माण का कार्य 4 वर्ष ही शेष रहा है वो पूर्ण हों जाने के बाद में तुम्हारी कन्याओ का विवाह करवा दूंगा लेकिन तेलियो के मन मे अलग ही चल रहा था उन्होंने षड़यंत्र रचकर वहाँ निगरानी में लगे राजपूत सरदारो को भोज का आयोजन रखकर बुलाया और खाने में नशे का मिलाकर उन राजपूतों को खिला दिया जब राजपूत नशे में नींद में चले गए तो तेलियो ने मौका देखकर फ़रार हो गए
जब दूसरी प्रहर के सरदार आये निगरानी के लिए तो देखा कि रात में जिन सरदारो की वहाँ duty थी वो सब नशे में नीद में थे उनको जगाकर पूछने पर तेलियो के षड्यंत्र से भागने का पता चला जब यह पूरा वर्णन महाराजा जयसिंह जी के पास पहुँचा
तो उन्होंने निगरानी में लगे उन सरदारो को बुलवाया और कहाँ यह आपकी गलती की वजह से हुआ इसलिए अब आप व्यवस्था करो तेलियो की या आप स्वयं 8 वर्षो से तेल का निकालने का काम निगरानी करते करते देखते रहे हैं इसलिए आप तेल निकालकर मंदिर निर्माण पूर्ण करवाओ यह आज्ञा दे दी
तब निगरानी में लगे सभी सरदारो ने मना कर दिया कि हम यह काम नही करेंगे वर्ना दूसरे हमे हींन भावना से देखेंगे व राजपूत नही समझेंगे तब राजा ने प्रलोभन देकर कहा तेलियो को एक मोहरा देता था आपको दो मोहर दूंगा लेकिन फिर भी उन राजपूतो ने मना कर दिया तब राजा के भतीज कुन्तपाल ने आगे बढ़कर राजपूतो को कहा चलो में आपके साथ यह काम करूंगा व राजा ने वचन दिया मेरे मन मे ऊंच नीच नही आएगी आप क्षत्रिय हो और क्षत्रिय ही रहोगे तब वेलसिंह भाटी ने अपने सरदारो को समझाया कि जब कुँवर कुन्तपाल स्वयं यह कार्य अपने साथ करेगे तो फिर ऊंच नीच की बात ही नही उठेगी तब दूसरे सरदारो ने वेलसिंह और कुन्तपाल के पीछे पीछे हामी भर दी,
लेकिन उन राजपूतो ने कहा हम घाणी के पीछे पीछे घूम नही सकते तो महाराजा जयसिंह ने सुथारों को बुलाकर घाणी के साथ राजपूतो के लिए पाठ बनवाकर बैठने की व्यवस्था करवाई ताकि उन सरदारो को घाणी के पीछे पीछे घूमना न पड़े और महाराजा ने कहा मेरा सिंहासन गज ऊंचा है लेकिन तुम्हारे सिंहासन सवा गज ऊँचा रहेगा इसप्रकार 4 वर्ष उन राजपूतो ने वेलसिंह और कुन्तपाल के नेतृत्व में मंदिर निर्माण पूर्ण करवाया इसमे उन सरदारो की संख्या कम थी तो इसमें कुछ वैश्य वर्ण के घी तेल का काम करने वाले लोगों ने भी मदद की थी
जब मंदिर पूर्ण हुआ और समारोह का आयोजन किया रखा गया जिसमें वो राजपुत सरदार भी आये जिन्होंने घाणी चलाई थी वो आकर बैठे तब तक उनके पास धन भी अधिक इकट्ठा हो गया था राजा ने दुगनी मोहर देने की वजह से तो दूसरे राजपूत ईर्ष्या वश खड़े होकर कह दिया आप आधी मोहरे हमे दे दो या इस धन को आप धर्म पूण्य के कार्य मे खर्च कर दो तब उन राजपूत सरदारो ने मना कर दिया तब दूसरे राजपूतो ने कहा अब आप राजपूत नही रहे घाँची हो गए हो और हम अब आपके साथ बेटी व्यवहार नही करेगे
जब दूसरे राजपूतो द्वारा इस प्रकार के व्यवहार के कारण वो सरदार महाराजा के पास उनको वचन का याद दिलवाने गए कि आपने वचन दिया था लेकिन उस समय की परिस्थिति ओर दूसरे सरदारो का संख्या प्रभाव अधिक होने के कारण महाराजा ने चुप रहना ही ज्यादा उचित समझा
तब उन सरदारो ने कहा कि क्षत्रिय के लिए वचन के संदर्भ में रघुकुल रीति सदा चली आयी प्राण जाए पर वचन न जाए लेकिन आप वचन देने के बाद भी मौन हो गए तब उन राजपूतो ने अपने क्षत्रियोचित कर्म को प्रधान रखकर अपने अलग समाज की स्थापना कि जो उस समय राजपूत घाँची नाम से जाने गए उस समय उन राजपुत सरदारो की संख्या क्या थी उसका वर्णन राज दरबार के राज राव ने इसदोहे द्वारा उल्लेख किया है
【< तवां चालक गुणतीस, बीस खट् प्रमार बखाणु । राठोड़ पच्चीस , बेल बारेह बौराणा ॥ लाभ सोलेह गेहलोत, भाटी उगणीस भणिजे । सात पढिहार सुणोजे ॥ सुदेचा तीन बदव सही , कवि रुद्र कीरत करे । राजरे काज करवारी थू , साख साख जेता सरे ॥ ]]
संवत इग्यारह एकानवे जेठ तीज रविवार !
भावार्थ - गुणतिस 29 सौलंकी गोत्र के सरदार ! छब्बीस 26 परमार(पँवार) गोत्र के सरदार ! पच्ची 25 राठौड़ गोत्र के , बीस 20 गहलोत गोत्र के ,20 बोराणा सरदार , 19 भाटी गोत्र के सरदार ! बीस 20 चौहान गोत्र के 7 पढियार गोत्र के व तीन 3 सुंदेचा (परिहारिया ) तीन भाई सरदार थे कुल 173 सरदार थे जिसकी कविताए रूद्र करता है । ( रुद्र पाटण के राजदरबार के राज राव थे )
विक्रम संवत 1191 में यह स्थापना करके वेलसिंह जी भाटी पद्मसिंह जी परिहार सातलसिंह चौहान अन्य सरदारो के नेतृत्व में अलग समाज की स्थापना रखी थी
विक्रम संवत 1199 में गदोतर ( गधे नुमा पत्थर ) डालकर पाटण से आबू में आकर पाटण से राज राव रुद्र के छोटे भाई चंच को बुलाकर अपनी वंशावली लिखवाई जिस समय आठ कुल थे
उस समय आबू में राजा विक्रम सिंह परमार थे फिर आबू से मारवाड़ में बस गए
विक्रम संवत 1199 में जब वंशावली लिखवाई तब तक दहिया राजपूत वंश नही था राजपूत घाँचीयो में यह वंश का राव जी के पोथियों के अनुसार स्थापना के 300 वर्ष बाद जालोर के अंदर दहिया राजपूतो के बीच मे आपसी विवाद के कारणों से कुछ दहिया राजपूत सरदारो ने राजपूत घाँचीयो के अंदर आ गए थे इसके बाद इस वंश गोत्र राजपूत घाँची मे हुई
Note - हमारी क्षत्रिय घाँची समाज किसी का इतिहास चुराना स्वीकार नहीं किया बस जो जानकारी है वो हमारे पूर्वजो के बारे में जो था वो ही बताया गया है इसमें न कोई कपोल कल्पना है या मनगढ़ंत कुछ नही है जो तत्कालीन इतिहास रावो की पोथियों में वर्णित है केवल वही है इसके अलावा आप रासमाला पुस्तक , चालुक्य वंश रत्नमाला प्रथम संस्करण भाग चतुर्थ से भी देख सकते हो